कभी चले थे घर से — लेखिका प्रेरणा मेहरोत्रा गुप्ता

कभी चले थे घर से, आँखों में लेके सपने।
पीछे छूटे थे, ना जाने मेरे कितने अपने।
कई बार आँखों में भर, यादो के आँसू, हमने खुदका हाथ थामा था।
हमारे इस बदलते रूप का कारण, बन बैठा ये ज़माना था।
कभी चले थे घर से, आँखों में लेके सपने।
पीछे छूटे थे, ना जाने मेरे कितने अपने।
कई बार आँखों में भर, यादो के आँसू, हमने खुदका हाथ थामा था।
हमारे इस बदलते रूप का कारण, बन बैठा ये ज़माना था।
प्रेरणा मेहरोत्रा गुप्ता की कविता चले गये तुम तो अपनी यादें छोड़ कर, रह गये, तुम्हारे अपने देखो, वही उसी मोड़ पर. तुम्हारे बलिदान का क़र्ज़, अब हमे चुकाना है, अपनी क्षमताओं को जगाकर, तुम्हे इंसाफ दिलाना है। चले गये तुम तो, अपने प्राणो की बली देकर, देश सुरक्षा का संकल्प, अपने संग लेकर, अब तुम्हारे संकल्प की ज़िम्मेदारी
Read moreऐ बेखबर दुनियाँ, तू कहाँ बस, चली ही जा रही है ?
कुछ पल ठहर कर तो देख,तेरी ज़िन्दगी भी बस, यूही गुज़रती जा रही है।
मैं खुश हूँ क्योंकि,
आज का ये दिन तो मैं देख पाई।
सबको नहीं तो क्या, कुछ को तो खुश मैं रख पाई।
वो कल ही की तो बात थी जब माँ तू मेरे साथ थी,
डाटती धमकाती तो क्या, तेरे साये की तो आस थी ,
आज तो रह गई मैं अकेली, मगर खुश हूँ,
कुछ पल के लिए, तो तू मेरे साथ थी ,
वो कल ही की तो बात थी जब माँ तू मेरे साथ थी.
ख्वाहिश करती हूँ ऐसे भारत की…..
जिसमें हर जाति का मेल हो,
शांति पूर्वक, इस भूमि में,अब हर कोई खेल हो,
प्राण जाये मगर मोबाइल ना जाये।
किस-किस को और कैसे हम इस दुनियां की ये दुविधा सुनाये??
वक़्त के साथ चलकर भी,जो खुदको सही दिशा में नहीं बदलता है।
दुखो के वक़्त में, गिर कर भी, वो आसानी से नहीं संभलता है।
दूसरे की परिस्थिति को समझो,
वो तुम्हारी समझ जायेगा।
एक दूजे का हाथ थामे,