आभा आभास : एक सच्ची घटना.

आनंद प्रकाश का लेख
दिल्ली का सरकारी अस्पताल। कमरे में बिस्तर पर एक बुजुर्ग मरीज कौमा में। पास की कुर्सी पर अधेड़ उम्र की महिला सुबह से शाम तक। रात में सेवा के लिए मेड।
पिछले पांच दिन से ये सब देख रहा हूं। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि जब मरीज ना सुन सकता है, ना बोल सकता है, ना देख सकता है, यानी होश में ही नहीं है, तो महिला द्वारा इतनी सख्त ड्यूटी क्यों ?
कोई नहीं. पर्यवेक्षक हूं, रहा नहीं गया। पूछा, “कौन हैं आपके ?”
उत्तर ने मुझे पूरी तरह झकझोर दिया। आपकी स्थिति भी यही होगी अगर सुनेंगे। उत्तर था, “कोई नहीं।” “कोई नहीं,फिर आप ?…
उस दिन तो कुछ पता नहीं चला। कई दिन और बीते। बात आगे बढ़ी, महिला हैं निरूपमा माथुर ! दिल्ली द्वारका के ग्रामीण क्षेत्र में एक ‘ओल्ड एज होम’ चलाती हैं। नाम है आभा आभास !
उसी आभा आभास में उक्त मरीज इनके मेहमान थे। पढ़े लिखे, बड़ी कंपनी से रिटायर्ड। परिवार में पत्नी, एक बेटी, दोनों व्यस्त इसीलिए आभा आभास में।
कुछ दिन पहले तक भले चंगे थे। एकाएक झटके लगे, कई, लगातार। भावनात्मक, मानसिक, आर्थिक और शारीरिक भी।
***अपनों से
झटके क्या थे पूरा धोखा था, वह भी अपनों के द्वारा ; जब समझ आया तो पूरी तरह टूट गए और अब यहां अस्पताल में बिस्तर पर, इस दयनीय स्थिति में, बेबस, लाचार ।
जो पता चला उस पर एकाएक यकीन नहीं हुआ।
चलो, पत्नी तो ठीक है, हो सकता है विशेष परिस्थितियों में ; पर क्या कोई बेटी भी ऐसा कर सकती है ?
आंसुओं के सहारे स्टैंप पेपर पर सब कुछ अपने नाम लिखवा लिया ; मकान, अन्य संपत्ति, बैंक बैलेंस , जेवर, नकदी सब! फिर अंगूठा दिखा दिया। आना जाना बंद, खर्चा बंद और अब 3 महीने से ओल्ड एज होम का मासिक खर्चा भी बंद।
कुछ दिन और बीते। वो कौमा से बाहर ही नहीं आ पाए, और चल दिए।
बड़ी अजीब सी अफरा-तफरी थी उस दिन। उसी दिन मुझे पता चला जितना सुना था मां बेटी की नालायकी, खुदगर्जी और रिश्तो को तार-तार कर देने वाली बेशर्मी के बारे में, मामला उससे भी कहीं अधिक भयावह निकला, ऐसा कि ना देखा, ना सुना।
***परायों से
शव के चारों तरफ भीड़ ; पर अपना कोई नहीं। अंतिम संस्कार का प्रश्न।
अस्पताल प्रशासन और मैडम माथुर के बार-बार फोन करने पर बमुश्किल एक जवाब मिला पत्नी और बेटी की तरफ से, “हमारा उनसे अब कोई रिश्ता नहीं है। शव का जो भी जी आए, करें। हमें परेशान करने की जरूरत नहीं है। और फोन बंद। लाख कोशिशें, पर बंद तो बंद।
मैं अवाक ! ऐसा भी हो सकता है क्या ? हो सकता क्या, हो रहा था अविश्वसनीय, कल्पना से परे। सच, ‘Truth is stranger than fiction.’
मेरी आंखों के आगे दो तस्वीर उभर आईं : अपनों से इतनी गहरी चोट और गैरों से इतना अधिक अपनापन !
मिसेज माथुर आगे आईं। उन्होंने ही सारी औपचारिकताएं पूरी कीं, अस्पताल से लेकर शमशान तक। सभी हतप्रभ।
निरुपमा माथुर जी ने मानवीयता के एक नए कीर्तिमान की स्थापना कर दी थी! मेरे साथ साथ सभी का मन उनके प्रति आदर से झुक गया।
किसी दिन उनके आभाआभास जाऊंगा, कुछ और मानवीय संवेदनाओं की तलाश में।