घरों में कमरे कमरों में घर

शैली कालरा की लिखित कविता

वो जमाने थे 
जब घरों में कमरे सहूलियत के लिये बनते 
कभी हम खुद कभी चीज़ों को 
रख दिया करते 
कमरों में नहीं
घरों में थे हम रहते।

हुआ करते थे घर कुछ ऐसे
जहाँ खिड़कियाँ ज़्यादा
दरवाज़े कम हुआ करते
खिड़कियाँ खुली
दरवाज़े बंद रहते

घर ऐसे
जिनमे रौशनदान होते
थी रसोई ऐसी
जहां नंगे पाँव जाते
रोशन थे घर सबके
खिलखिलाती हँसी
और मुस्कुराते चहरे

घर !
जहाँ छोटे बड़े एक साथ
खुले आसमान में बैठ सुनते
दादू – दादी की कहानियाँ
पड़ोस के बच्चे
धमा चौकड़ी
पापा की डाँट
सन्नाटा और चुप्पी !

वे घर थे जहाँ
कमरे कम दिल बड़े होते

फिर वक्त बदला,
हम बदले
हालात बदले
सब बदला
घर और घर का नजारा बदला

आज भी हम घर में
फिर भी दूर हो गए
घर में हैं
पर कमरों में सिमट गए

अब घर में हम नहीं
घरों में कमरे और
कमरों में घर रहते हैं
घरों से ज़्यादा
कमरों के दरवाज़े बंद रहते हैं

घर अब कहां
घर कमरों में खो गए
कमरे ज़्यादा दिल छोटे हो गये
घर अब घर नहीं
घर बस
नाम के रह गये ।।

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