ये कैसा रिश्ता है हर माँ का अपने बच्चे के साथ?

ये कैसा रिश्ता है हर माँ का अपने बच्चे के साथ?
जो दर्द सह कर भी,अपने बच्चे के लिए मुस्कुराती है,
दिखावे की इस दुनिया को भुलाकर,
वो फिरसे अपने बच्चे के संग, एक बच्चा बन जाती है।
ये कैसा रिश्ता है हर माँ का अपने बच्चे के साथ?
जो दर्द की ज्वाला में झुलसकर,
एक जीव को इस दुनिया में लाती है।
गिरती संभलती वो बार बार,
बेशक जीवन में ठोकरे तो वो भी बहुत खाती है।
मगर अपने बच्चे की एक पुकार पर वो दौड़ी चली आती है।
ये कैसा रिश्ता है हर माँ का अपने बच्चे के साथ?
जो अपने बच्चे में खोकर कही, खुदको ही भूल जाती है।
अपने में ही उलझी है मगर, अपने बच्चों की हर पहेली,
वो आसानी से सुलझाती है।
अपने बच्चो के कटु वचन से, वो खिलती कली, मुरझाई सी रह जाती है।
दुख तो केवल बस एक ही बात का है,
इतनी साहसी होकर भी,
नारी अपनी बात खुलकर, अपनों से कह नहीं पाती है।
उसके चरित्र की सही छवि,
लोगो को आसानी से समझ नहीं आती है।
क्योंकि अपने हक़ को छोड़ कर,वो बाकी सब के लिए लड़ जाती है।